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गुरुवार, 18 मार्च 2010

किस्मत अपनी-अपनी

किस्मत अपनी-अपनी। जब भी यह शब्द सुनता हूँ या कहीं पढ़ता हूँ तो बहुत दु:ख होता है। क्योंकि हमारा गठबंधन बिना एग्रीमेंट के धोखे से गाँव की एक लड़की से हुआ था जिसे हम आज तक भुगत रहे हैं।
अब चूंकि हमारी श्रीमतीजी अधिक पढ़ी-लिखी तो हैं नहीं और ऊपर से हमारा मकान ऑफिसर कॉलोनी में हैं। जहाँ सबकी बीवियाँ पढ़ी-लिखी हैं और मॉडर्न कल्चर में विश्वास रखती हैं। पति के साथ शान से स्कूटर पर एक हाथ कंधे पर और दूसरा कमर में डालकर बैठती हैं और फिर यदि थोड़ी बहुत दूरी रहती भी है तो नगर पालिका के सहयोग से सड़कों के गड्ढों से लगने वाले दचके उस दूरी को कम कर देते हैं। यदि फिर भी पति महोदय संतुष्ट नहीं होते तो एक जोरदार ब्रेक लगाकर बची-खुची दूरी को भी खत्म कर देते हैं।
एक हम हैं जो कोरी कल्पना ही करते रहते हैं। क्योंकि हमारी एकमात्र श्रीमतीजी पहले तो स्कूटर पर बैठने से कतराती हैं, फिर भागीरथी प्रयास करने पर जैसे-तैसे बैठ भी जाती हैं तो मुझसे एकदम दूर स्टेपनी से चिपक कर। यानि मेरे और उसके बीच तलाक की प्रारम्भिक स्थितियों वाला एक फुट का फासला रहता है। यह देखकर तो मुझे लगता है कि यदि मैं स्कूटर में केरियर लगवा लूँ तो निश्चित ही वह एक फुट की दूरी को दो फुट में बदलकर केरियर पर बैठ जाएगी।
मैंने उससे कई बार कहा किन्तु वह कॉलोनी की अन्य औरतों की तरह नही बैठती। कारण पूछो, तो कहती है कि लोग क्या कहेंगे ? आखिर गाँव की जो ठहरी, ऊपर से शिक्षा, मात्र मिडिल फेल, वो भी गाँव की पढ़ाई। अब इसी बात से बौद्धिक परीक्षण हो जाता है कि हमारी पडोसन कहती है ग से गणेश और श्रीमतीजी कहती हैं ग से गंवार। यदि शिक्षा से समझौता कर भी लूँ तो मोटी इतनी है कि स्कूटर में हवा फुल हो तो मित्र कमेंट पास करते हैं यार हवा तो भरवा लो। बाहर की बात तो छोड़िए घर में भी सहना और सुनना पड़ता है। एक बार मैं श्रीमतीजी के लिए सोने कि अंगूठी बनवाकर लाया तो मेरा ही बेटा मुझसे बोला पिताजी यह सोने कि चूड़ी किसकी है।
आज तो हद ही हो गई। सुबह के समय डोर बैल बजी और श्रीमतीजी ने दरवाजा खोला। अखबार वाला था। अखबार हाथ में लेकर गाँव वाली स्टाइल में दरवाजे की देहरी पर ही बैठकर जोर-जोर से अखबार पढ़ने लगी। फिर अचानक न जाने क्या हुआ। अखबार लेकर तेजी से अपने कमरे में गई और दरवाजा बंद करके रोने लगी। मैंने दरवाजा खुलवाने के अनेकों असफल प्रयास किए किन्तु विफल रहे। मैंने कहा अच्छा अखबार ही दे दो। उत्तर न में था और फिर उस बदकिस्मत अखबार के फटने की अन्दर से आवाज आने लगी। मैंने सोचा थोड़ा रो लेगी तो मन हल्का हो जाएगा फिर अपने आप ही दरवाजा खोलेगी।
वहाँ से उठकर मैं पड़ोसी का अखबार लाया और पढ़ने लगा। जैसे ही मैंने अखबार में विज्ञापन पढ़ा कि “पुरानी इस्त्री बदलकर नई इस्त्री ले जाइए” तो मैं समझ गया कि मिडिल फेल श्रीमतीजी ने जरूर यह विज्ञापन पढ़कर अपना मूड खराब किया होगा। मैंने श्रीमतीजी को कमरे के बाहर से आवाज लगाकर पूछा कि तुमने “पुरानी इस्त्री बदलकर नई इस्त्री ले जाइए” विज्ञापन पढ़ा है क्या ? वह अंदर से ही चिल्लाई, हाँ पढ़ा है और मुझे इसी बात का डर है कि तुम मुझे बदलकर कहीं दूसरी औरत न ले आओ। मैं समझ गया कि वह इस्त्री का अर्थ पत्नी से लगा बैठी है। मैंने उसे बहुत समझाया कि इस्त्री का अर्थ पत्नी नहीं बल्कि कपड़ों पर करने वाली इस्त्री अर्थात प्रेस है। तब जाकर उसने दरवाजा खोला। लेकिन जैसे ही दरवाला खुला, अन्दर का दृश्य देखकर मैं दंग रह गया। वह आत्महत्या की तैयारी कर रही थी। खैर, जान बची तो लाखों पाए। श्रीमतीजी को तो मैंने बचा लिया, अब ईश्वर मुझे बचाए।

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