(विश्वस्तरीय 'यूनिकवि' काव्य प्रतियोगिता में 9 वां स्थान प्राप्त
पुरस्कृत कविता)
जिंदगी भर
पिता ने
कवच बनकर
बेटे को सहेजा
लेकिन
पुत्र कोसता रहा
जन्मदाता पिता
को
और
सोचता रहा
जाने कब लिखी
जाएगी वसीयत मेरे नाम
पुत्र ने
युवावस्था में
जिद की
और
बालहठ को दोहरा
कर
फैल गया धुँए सा
पिता ने
गौतम बुद्ध की
तरह शांत रहकर
अस्वीकृति
व्यक्त की
कुछ देर
शांत रहने के
बाद
हाथ से रेत की
तरह फिसलते
बेटे को देखकर
पिता बोला
मेरी वसीयत के
लिए
अभी तुम्हें
करना होगा
अंतहीन इंतजार
कहते हुए
पिता की आँखों
में था
भविष्य के प्रति
डर
और
पुत्र की आँखों
का मर चुका था पानी
भूल गया था वह
पिता द्वारा दिए
गए
संस्कारों की श्रृंखला
अब नहीं जानता
वह
अच्छे
आचार-विचार
व्यवहार और
संस्कारों को
मर्यादा में रखना
क्योंकि
यूरिया खाद
और
परमाणु युगों की
संतानों का भविष्य
अनिश्चित है
नालायक हो गए हो
तुम
भूल गए
तुम्हारे आँसुओं
को हर बार
ओक में लिया है
जमीन पर नहीं
गिरने दिया
अनमोल समझकर
पिता के भविष्य
हो तुम
तुम्हारी वसीयती
दृष्टि ने
पिता की
सम्भावनाओं को
पंगु बना दिया
है
तुमने
मर्यादित दीवार
हटाकर
उसे कोष्ठक में
बंद कर दिया
तुम्हारी संकरी
सोच से
कई-कई रात
आँसुओं से मुँह
धोया है उसने
तुम्हारी
वस्त्रहीन
इच्छाओं के आगे
लाचार पिता
संख्याओं के बीच
घिरे
दशमलव की तरह
घिरा पाता है
स्वयं को
और
महसूस करता है
बंद आयताकार में
बिंदु सा अकेला
जहाँ
बंद है रास्ता
निकास का
चेहरे के भाव से
देखी जा सकती है
उसके अंदर
मीलों लम्बी
उदासी
और
आँखों में
धुंधुलापन
तुम्हारी हर
अपेक्षा
उसके गले में कफ
सी अटक चुकी है
तुम
पिता के लिए
एक हसीन सपना थे
जिसकी उंगली
पकड़कर
जिंदगी के पार
जाना चाहता था वह
तुम्हारी
असमय ढेरों
इच्छाओं से
छलनी हो चुका है
वह
और
रिस रहा है
नल के नीचे रखी
छेद वाली बाल्टी
की तरह
आज तुम
बहुत खुश हो
मैं समझ गया
तुम्हारी
इच्छाओं की बेडियों से जकड़ा
पिता हार गया
तुमसे
और
लिख दी वसीयत
तुम्हारे नाम
अब तुम
निश्चिंत होकर
देख सकते हो
बेहिसाब सपने।