अंधेरा
बंद सांकल को
घूरता है
और
करता है
प्रतीक्षा
आगंतुक की
द्वार भी
सहमे हुए से
चुपचाप
एक-दूसरे का
सहारा बनकर खडे हैं
सुनसान अंधेरे
में
ध्वनि
तालाब में फेंकी
कंकडी के घेरे
सा
विस्तार ले गई
अनंत को ताकता
शून्य
चेहरे की सलवटें
कम करने की
कोशिश में व्यस्त है
अंधेरे में पडते
पदचाप
स्पष्ट गिने जा
सकते हैं
सांकल का स्पर्श
और
बंद दरवाजों को
धक्का देकर
आगे बढ़ते पदचाप
अंधेरे सूनेपन
को
खत्म करने का
प्रयास कर चुके
हैं
आधी रात को
इतने अंधेरे में
न जाने
कौन आया होगा
निश्चित ही
जानता होगा
अंधेरा
प्रतीक्षा तो
उसने ही की है
अंधेरा
चालाक है
तिलिस्मी है
नहीं है कोई
आकृति उसकी
फिर भी
टटोल-टटोलकर
बढ़ता है आगे
उस छोर की ओर
जिसका
कोई पता नहीं
क्योंकि
इसके विस्तार का
क्या पता
और
वैसे भी
तय किए गए फासले
से
दूरी का पता
नहीं चलता
क्योंकि
अंधेरे को
स्पर्श ही नाप
सकता है
शोषण करता हुआ
अंधेरा
पराक्रमी होने
का ढिंढोरा पीटता है
..... ? ? ? ?
अरे!
क्या हुआ?
क्यों सिकुड़ने
लगे
जानता हूँ
नहीं स्वीकारोगे
तुम अपनी हार
भोर जो होने
वाली है।